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अब सहर से परे नहीं है रातों की आवाज़

अब सहर से परे नहीं है रातों की आवाज़, पौ फटते ही पता चलेगा कितनी लंबी रात। बेचैन सी उहापोह फिर सन्नाटे की काट, चिंता से तो सन्नाटे की कर्क ध्वनि ही माफ़। ऐसा भी क्या तेज़ प्रताप के सब कुछ कर दे राख, वैसे तो चूल्हे के भीतर भी होती है आँग। किसको थोपें दुखड़े अपने कितनी कर लें बात, दुश्चिंता है अपनी अपनी यूँ ही सबके पास। थके हुए इन शब्दों से भी कितना ले लें काम, लोक गीत कब बन पाई है कृमिकों की आवाज़ । भर छागल में ठंडा पानी छागल रक्खी ताक़, सबकुछ होकर कुछ न होना यह कैसा एहसास। सुख दुःख, पीड़ा, खोना पाना सब जीवन का भाग, फिर ऐसा भी क्या भिन्न भला है इंद्रधनुष के पार। गरम तवे पर  ठंडा पनी, सिसकी की आवाज़, उजड़े मन से मत ही रक्खो चंचलता की आस । छोटा मुँह और बात बड़ी हो या बड़े की छोटी बात, अभियोग भले हो अचरज कैसा इतना करता कौन विचार  | थोड़ा अपने भीतर देखें थोड़ा तन के पार, नम नयनो मे कैसे लग गई इतनी भीषण आँग । पहले गिरना, गिर कर उठना कितना अच्छा भाव, गिरते उठते गिरते रहना यही  कठोर यथार्थ । अब सहर से परे नहीं है रातों की ...

साल का इनाम

कई सालों में एक साल आता है हम उसको मामूली समझ बैठते है, मज़ाक बना रखते है, लेकिन वो गंभीर होता है,  वो चुपचाप दबे पैरों से लगातार चलते रहता है, हमको हसाता है, ख्वाब दिखाता है  गिराता है, उठाता है। पर क्या चाहता है, इसकी  भनक तक नहीं लगने देता। फिर एक दिन जाते जाते, जब वो सबसे ज़्यादा चंचल होता है, वो हमसे हमारा सुकून, उड़ा ले जाता है। वैसे ही जैसे, तेज़ आँधी, बरीश की बूँदो को। और हम लाचार है, हसने को, जब वो हँसता है। रोने को, जब वो गिरता है। और चुप चाप, बिना जताए, बुत की तरह, सहन करने को, जब वो अपना इनाम समझ कर, हमसे हमारा कोई माँगs लेता है । कई सालों में एक साल आता है जिसे हम मामूली समझ बैठते है।

एक धुन बज रही है मेरे गाँव में

एक धुन बज रही है मेरे गाँव में अजीब, काली सी अनजान सी धुन है  | मायूसी है, खामोशी है,  चहचहाहट के फ़ुक़्दान में एक सुनसान सी धुन है  | कल रविवार है, फिर भी आँगन खली है, गालियाँ चुप हैं, परसो इम्तहां भी नहीं | अभी तो हुई है सहर इस साल की, एक ढलती शाम सी धुन है | शीशे बरकार, नालियों में गेंद नहीं कोई भी डॉक्टर इंजीनियर पायलेट मैदान में नहीं | शांति नहीं है, सन्नाटा है, एक कोहराम सी धुन है | बड़े संभाल के रख रखा था, बरनी में बंद कर के, ऊपर के आले पे, एक तूफान को कभी बरनी टूटी और शहर गूँज उठा, एक तूफ़ान सी धुन है  | तुमने नहीं सुनी? ध्यान से सुनो काली सी  मठमैली सी, लाल यूनिफार्म में, एक हैवान सी धुन है | कल तो  रविवार है, शहर के अस्पतालों में फिर क्यों ये परेशान सी धुन  है अजीब बात है |