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अब सहर से परे नहीं है रातों की आवाज़

अब सहर से परे नहीं है रातों की आवाज़, पौ फटते ही पता चलेगा कितनी लंबी रात। बेचैन सी उहापोह फिर सन्नाटे की काट, चिंता से तो सन्नाटे की कर्क ध्वनि ही माफ़। ऐसा भी क्या तेज़ प्रताप के सब कुछ कर दे राख, वैसे तो चूल्हे के भीतर भी होती है आँग। किसको थोपें दुखड़े अपने कितनी कर लें बात, दुश्चिंता है अपनी अपनी यूँ ही सबके पास। थके हुए इन शब्दों से भी कितना ले लें काम, लोक गीत कब बन पाई है कृमिकों की आवाज़ । भर छागल में ठंडा पानी छागल रक्खी ताक़, सबकुछ होकर कुछ न होना यह कैसा एहसास। सुख दुःख, पीड़ा, खोना पाना सब जीवन का भाग, फिर ऐसा भी क्या भिन्न भला है इंद्रधनुष के पार। गरम तवे पर  ठंडा पनी, सिसकी की आवाज़, उजड़े मन से मत ही रक्खो चंचलता की आस । छोटा मुँह और बात बड़ी हो या बड़े की छोटी बात, अभियोग भले हो अचरज कैसा इतना करता कौन विचार  | थोड़ा अपने भीतर देखें थोड़ा तन के पार, नम नयनो मे कैसे लग गई इतनी भीषण आँग । पहले गिरना, गिर कर उठना कितना अच्छा भाव, गिरते उठते गिरते रहना यही  कठोर यथार्थ । अब सहर से परे नहीं है रातों की आवाज़, पौ फटत

रेशम का बिछोना

आलीशान, खूबसूरत, सबसे कोमल, सबको होना है । सबसे रूठे, हारे थके जब, इसपर गिरकर रोना है। झट आँसू सूखे मन बहले, फिर जा बिस्तर पे सोना है । पैरों में रक्खे इतराते, इस दुनिया में इस से दो ना है । तकिए कम्बल बिस्तर पे, उसके हिस्से में कोना है । सबका चहेता, सबसे कोमल, रेशम का बिछोना है ।